दूसरी कविता इसका कोई शीर्षक मैंने नहीं सोचा है। यदि किसी को समझ आए तो स्वागत है।

उसने कहा बचपना
       मत करो
क्यों मत करो
      मन को मारो बस
पर बचपना मत करो
     रात -दिन बीतते है
तो बीते
     जिन्दगी चुकती है
तो चूक जाए
वक्त जाता है तो
      जाए
पर बचपना मत करो। 
जिंदगी के ख़त्म होने पर ,
समय के चले जाने,
और खुशियो के मर जाने
पर एतराज़ नहीं है
पर बचपना दिखाने पर है।
यंहा सब बचपना मारने में लगे है ,
जो सुकून है ,ख़ुशी है , प्यार है, उत्साह है ,
उमंग है,जीने की।
कामना है ,कुछ पाने की।
अहसास है ,तृप्त होने का।
अनुभव है अनुराग का ,प्यार का।
जीवन है जीने का।
बचपना उसे मत रोको ,
उसे जिंदा रहने दो
उसे जिंदा रहने दो।



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